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कम बजट में इतनी बड़ी सफलता से दुनिया भी हैरान, आखिर ISRO ने कैसे किया कमाल

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कम बजट में इतनी बड़ी सफलता से दुनिया भी हैरान, आखिर ISRO ने कैसे किया कमाल

Pragati Bhaarat:

कम बजट में इतनी बड़ी सफलता से दुनिया भी हैरान, आखिर ISRO ने कैसे किया कमाल

कम बजट में भी किसी मकसद को हासिल किया जा सकता है. भारत ने उसे कर दिखाया है. 23 अगस्त को चांद के दक्षिणी ध्रुव पर विक्रम लैंडर को कामयाबी के साथ उतार कर इसरो और भारत ने साबित कर दिया कि इरादे दृढ़ हों, समझ विकसित हो तो किसी भी तरह की बाधा सामने नहीं आती. चंद्रयान 3 के बजट को देखें तो महज 600 करोड़ में कामयाबी हासिल हुई. अगर इसकी तुलना चंद्रयान 2 के बजट(करीब 900 करोड़) से करें तो उससे कम बजट में चंद्रयान 3 को चांद की सतह पर भारत पहुंचने में कामयाब हुआ. अगर इसे रूस लूना 25 मिशन से तुलना करें तो आधे से भी कम बजट में भारत ने सफलता हासिल की. बता दें लूना 25 मिशन में रूस ने 1600 करोड़ खर्च किए थे.

600 करोड़ में चंद्रयान 3 मिशन

यही नहीं अगर चंद्रयान 2 के बजट को देखें तो बहुत सी ऐसी मेगाफिल्में है जिन्हें बनाने में इससे अधिक रकम खर्च की गई है. कम बजट के बारे में इसरो के निदेशक एस सोमनाथ से किसी ने सवाल किया तो जवाब था कि यही तो रहस्य है. इसी सवाल का जवाब तलाशने की हम कोशिश करेंगे. एक मिशन से दूसरे मिशन की तुलना को वैज्ञानिकों से सही नहीं बताया लेकिन यह जरूर कहा कि स्वदेशीकरण, कुशल कार्यक्षमता और सस्ते श्रमशक्ति से यह संभव हो सका.लूना 25 मिशन को चंद्रयान 3 के प्रक्षेपण के करीब 28 दिन बाद छोड़ा गया. चांद पर भारत के उतरने से पहले लूना 25 को उतरना था हालांकि उनका मिशन नाकाम हो गया. दरअसल चांद की कक्षा में सीधे दाखिल होने के लिए लूना 25 में एक अतिरिक्त बूस्टर लगाया गया था लेकिन चंद्रयान मिशन में वैसा कुछ नहीं था लिहाजा चांद तक पहुंचने के लिए चंद्रयान 3 को धरती की कक्षा के साथ साथ चांद की कक्षाओं में चक्कर लगाने पड़े. जानकार बताते हैं कि रॉकेट के स्केल को आप जितना बड़ा करेंगे खर्च उतना ही अधिक होगा. जहां तक भारत की बात है तो हम पहले से मौजूद अपने रॉकेट सिस्टम पर लगातार शोध कर उसे और उपयोगी बनाने की दिशा में काम करते हैं. अगर आप जीएसएलवी को देखें तो उसमें पीएसएलवी के मूल सिद्धांतों को बरकार रखते हुए बदलाव किया गए और उसका फायदा कम बजट में नजर आता है.

कम बजट के पीछे खास वजह

इसरो के निदेशक एस सोमनाथ ने बताया कि रॉकेट के निर्माण में स्वदेशीकरण पर खासा ध्यान दिया गया है, एक और जानकार ने बताया कि अगर आप नासा की बात करें तो वो बड़े बड़े उद्योग घरानों को रॉकेट निर्माण की जिम्मेदारी देने के बाद उसकी खरीद करते हैं और लागत बढ़ जाती है, भारत में ज्यादातर चीजों को खुद बनाया जाता है और इंड्स्ट्री का उपयोग वेंडर के तौर पर करते हैं और लागत में कमी की यह बड़ी वजह है.विकसित देशों की तुलना में भारत में मैनपावर पर आने वाला खर्च दसवां हिस्सा होता है. यही नहीं इसरो की टेस्ट प्रक्रिया से भी लागत में कमी आती है. इसरो से जुड़े एक वैज्ञानिक के मुताबिक परीक्षण के समय हम अपने सभी संशाधनों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग करते हैं.यूरोप में जहां एक इंजन को पास करने के लिए आठ टेस्ट किए जाते हैं वहीं हम दो टेस्ट में उस दर्जे पर पहुंचते हैं ज्यादा जरूरी होने पर ही तीसरा टेस्ट करते हैं और इस वजह से हार्डवेयर की लागत में कमी आती है.

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